स्वामी दयानंद सरस्वती भारतीय समाज के महान सुधारक, महर्षि, एक महान योगी और आध्यात्मिक गुरु थे। भारतीय जनमानस को महर्षि दयानंद सरस्वती ने आत्मबोध, स्वाभिमान एवं स्वाधीनता का मंत्र प्रदान किया। स्वामी दयानंद सरस्वती जी ने आर्य समाज की स्थापना की और वह संस्कृत भाषा और वैदिक धर्म के प्रशंसक थे। उन्होंने सनातन धर्म के मूल सिद्धांतों की खोज और पुनर्स्थापना करने का कार्य किया। स्वामी दयानंद जी का मुख्य उद्देश्य जनता को ज्ञान देकर सत्य के प्रति जागरूक करना था।
इस बात को तो हम सब अच्छी तरह से जानते हैं कि भारत ऋषि-मुनियों की पवित्र भूमि है। ऐसे ही स्वामी दयानंद सरस्वती जी ने बचपन से ही वेद और शास्त्रों का अध्ययन किया था। वे रूढ़िवाद और अंधविश्वासों से बहुत दुखी थे। इसी पावन भूमि पर गुजरात के टंकारा प्रांत में फाल्गुन मास के कृष्ण पक्ष की दशमी तिथि को वर्ष 1824 ईसवी में स्वामी दयानंद सरस्वती का जन्म कर्षण जी तिवारी और माता यशोदाबाई के यहाँ हुआ। वह सत्य की खोज में 15 वर्ष तक देश में भटकते रहे। इनका नाम मूल शंकर था, दरअसल मूल नक्षत्र में जन्म लेने के कारण इनका नाम मूल शंकर रखा गया था। सत्य की प्राप्ति के लिए मूल शंकर ने वर्ष 1846 में सिर्फ 21 वर्ष की आयु में घर-परिवार, मोह माया सब कुछ छोड़कर संन्यास जीवन ग्रहण कर लिया था।
स्वामी दयानंद सरस्वती (Maharishi Dayanand Saraswati) एक मुनि, क्रान्तिकारी एवं समाज सुधारक, दार्शनिक और राष्ट्रवादी जन नेता थे। स्वामी दयानंद सरस्वती ने विभिन्न धर्मों और दर्शनों का अध्ययन किया। उन्होंने 1859 में गुरु विरजानंद जी से व्याकरण व योग दर्शन की शिक्षा प्राप्त की। 1860 में स्वामी दयानंद सरस्वती ने आर्य समाज की स्थापना की। आर्यसमाज की स्थापना का उद्देश्य वैदिक धर्म को पुन: स्थापित कर जातिबंधन को तोड़कर संपूर्ण हिन्दू समाज को एकसूत्र में बांधना था। यानि आर्य समाज का मुख्य उद्देश्य सनातन धर्म के मूल सिद्धांतों को पुनर्स्थापित करना और समाज में सुधार लाना था। स्वामी दयानंद सरस्वती ने आर्य समाज के द्वारा अंधविश्वासों, कुरीतियों और जातिवाद का विरोध किया। इसके अलावा स्वामी दयानंद सरस्वती ने महिलाओं के उत्थान और शिक्षा पर भी जोर दिया। उन्होंने सती प्रथा और बलिवाद के खिलाफ उत्कृष्ट संघर्ष किया। उनके विचारों ने भारतीय समाज को जागरूक किया और उनका योगदान हमारे देश के सोचने के तरीके को सुधारने में महत्वपूर्ण था।
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महंत श्री पारस भाई जी के अनुसार स्वामी दयानंद सरस्वती का जीवन और कार्य भारत के इतिहास में एक महत्वपूर्ण अध्याय है, जिसे कभी भुलाया नहीं जा सकता है। श्री पारस भाई जी आगे कहते हैं कि उनके कार्यों का मेरे जीवन पर भी गहरा प्रभाव पड़ा है। मैंने उनके जीवन से बहुत कुछ सीखा है। उनके विचारों पर मैं हमेशा अमल करता हूँ। आज भी आर्य समाज उनके विचारों को आगे बढ़ा रहा है। उन्होंने भारतीय समाज में बदलाव लाने के लिए बहुत बड़ा योगदान दिया है। उनकी दृष्टि वैज्ञानिक एवं प्रजातांत्रिक थी।
ज्ञान की खोज में स्वामी दयानन्द सरस्वती मथुरा में वेदों के विद्वान् प्रज्ञाचक्षु स्वामी विरजानन्द के पास जा पहुँचे और उनके पास शिक्षा ग्रहण करने लगे। स्वामी विरजानन्द वैदिक साहित्य के प्रकाण्ड विद्वान् थे। उन्होंने स्वामी दयानन्द जी को वेद पढ़ाया और वेद की शिक्षा देने के बाद उनसे कहा कि अब तुम इस दुनिया में मनुष्यों को ज्ञान दो और उनके अंदर ज्ञान का विस्तार करो।
महर्षि दयानंद का संपूर्ण जीवन वैदिक संस्कृति को रहा समर्पित
महर्षि दयानंद जी का संपूर्ण जीवन वैदिक संस्कृति को समर्पित रहा है। महर्षि का जीवन एक धार्मिक संत का था। वेदों के प्रचार-प्रसार में महर्षि दयानंद के योगदान के बारे में बताते हुए देवेंद्रनाथ मुखोपाध्याय लिखते हैं कि पांच हजार वर्षों में दयानंद सरस्वती के समान वेद ज्ञान का उद्धार करने वाले किसी भी मानव ने जन्म नहीं लिया। दयानंद सरस्वती वेद ज्ञान के अद्वितीय प्रचारक थे। उन्होंने भारतवर्ष के सोये हुए आध्यात्मिक स्वाभिमान को फिर से जाग्रत किया। महंत श्री पारस भाई जी ने बताया कि स्वामी दयानंद सरस्वती ने अंधविश्वास और प्रचलित कई मिथ्या धारणाओं को तोड़ा। साथ ही उन्होंने अनुचित पुरानी परंपराओं का भी खंडन किया। महर्षि दयानंद ने वेदों को समस्त ज्ञान, धर्म के मूल स्रोत और वास्तविकता के रूप में स्थापित किया। महर्षि दयानंद का कहना था कि वेद ही सभी सत्य विद्याओं की पुस्तक है। सभी भारतीयों को उन्होंने वेदों की ओर लौटने का आह्वान किया।
स्वामी दयानंद सरस्वती ने कई धार्मिक और सामाजिक ग्रंथों की रचना की। इनमें से सबसे महत्वपूर्ण ग्रंथ ‘सत्यार्थ प्रकाश’ है। सत्यार्थ प्रकाश में उन्होंने सनातन धर्म के मूल सिद्धांतों और अन्य धर्मों की सच्चाई को स्पष्ट किया है। स्वामी जी के विचारों का संकलन कृति ‘सत्यार्थ प्रकाश’ में मिलता है, जिसकी रचना स्वामी जी ने हिन्दी में की थी। सत्यार्थ प्रकाश’ में चौदह अध्याय हैं।
स्वामी दयानंद मूल रूप से एक धार्मिक चिंतक अथवा धर्म के प्रवर्तक थे। स्वामी दयानंद सरस्वती के इन मुख्य विचारों को जानते हैं जो कि निम्न हैं-
महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती जी आधुनिक भारत के महान चिन्तक, समाज-सुधारक तथा आर्य समाज के संस्थापक थे। उन्होंने वेदों की सत्ता को ही हमेशा सर्वोपरि माना। ‘वेदों की ओर लौटो’ यह उनका प्रमुख नारा था। स्वामी दयानंद सरस्वती ने वेदों को सर्वोच्च माना। साथ ही वेदों का प्रमाण देते हुए समाज में कई कुरीतियों का कड़ा विरोध भी किया। महर्षि दयानंद जी ने सर्वप्रथम आव्हान किया कि वेद का पढऩा-पढ़ाना और सुनना-सुनाना सब आर्यों का परम धर्म है। स्वामी दयानंद सरस्वती जी एक महान पुनर्स्थापक थे। उन्होंने समाज में सुधार लाने के लिए अथक प्रयास किए। महंत श्री पारस भाई जी कहते हैं कि वह आज भी भारतीय समाज के लिए एक प्रेरणा हैं। उनकी प्रवृत्ति सत्यान्वेषण की थी। उन्होंने वेद और उपनिषदों की शिक्षा दी और समाज में फैली बुराइयों का विरोध किया।
स्वामी दयानंद सरस्वती के योगदान निम्न हैं -
स्वामी दयानंद सरस्वती जी ने मूर्ति पूजा का विरोध किया है। उन्होंने मूर्ति पूजा को जड़पूजा कहा है। दरअसल वह मूर्ति पूजा के विरोधी थे और उनका मानना था कि मूर्ति पूजा से एक ही धर्म के अनुयायियों में धार्मिक मतभेद एवं अज्ञान की वृद्धि होती है। वह कहते थे कि मूर्ति के द्वारा आध्यात्मिक एकता की प्राप्ति असंभव है।
जब भारतीय समाज में अनुसूचित वर्ग की स्थिति दयनीय हो गयी थी और लोग उन्हें तिरस्कार की नज़रों से देखते थे। तब स्वामी दयानंद सरस्वती जी ने इसका पूरी तरह विरोध किया। उन्होंने लोगों से विनती की कि हमें सबके साथ एक समान व्यवहार करना चाहिए और सबको एक जैसी दृष्टि के साथ देखना चाहिए। उन्होंने असमानता, छुआछूत, बहु विवाह आदि का विरोध किया। उन्होंने शूद्रों के उद्धार पर जोर दिया
"Mata Rani's grace is like a gentle breeze, touching every heart that seeks refuge in her love."