हिन्दू धर्म में मुख्य 16 संस्कार हैं। जिनका पालन करना व्यक्ति का मुख्य कर्म होता है। यह सभी पवित्र सोलह संस्कार मनुष्य के जन्म से मृत्यु तक हर व्यक्ति द्वारा किये जाते हैं। आइये इस आर्टिकल में आज हिन्दू धर्म के पवित्र सोलह संस्कार के बारे में विस्तार से जानते हैं।
संस्कार का अर्थ होता है किसी को संस्कृत करना या शुद्ध करके उपयुक्त बनाना। कुछ नियमों या कुछ विशेष क्रियाओं द्वारा उत्तम बनना ही संस्कार है। ऐसे ही किसी साधारण मनुष्य को विशेष प्रकार के धार्मिक नियमों या क्रियाओं के द्वारा श्रेष्ठ बनाकर सुसंस्कृत करना ही संस्कार है।
संस्कार, संस्कृत भाषा का शब्द है। महंत श्री पारस भाई जी ने बताया कि मन, वचन, कर्म और शरीर को पवित्र करना ही संस्कार है। आपने अक्सर देखा भी होगा कि किसी के कार्यों को परखने पर कहा जाता है कि इसके कार्यों से इसके संस्कार झलक रहे हैं। यानि हमारे कर्म हमारे संस्कारों को दर्शाते हैं। संस्कारों से ही हम सभ्य और समृद्ध कहलाते हैं। किसी भी व्यक्ति के जीवन निर्माण में हिन्दू संस्कारों की बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका होती है। यदि हम अच्छे कार्य नहीं करते हैं या अच्छा व्यवहार नहीं करते हैं तो असभ्यता की निशानी होती है। संस्कार मनुष्य को पाप और बुरे कर्मों से दूर रखते हैं।
महंत श्री पारस भाई जी का मानना है कि हिन्दू धर्म के ये संस्कार किसी भी व्यक्ति के व्यक्तित्व निर्माण में काफी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
संस्कार के पालन से मिलती है आयु-आरोग्यता। हिंदू धर्म में सोलह संस्कार मुख्य हैं जिनका कि अत्यंत महत्व है। हिन्दू धर्म में सोलह संस्कारों (षोडश संस्कार) का उल्लेख किया जाता है जो मानव को उसके गर्भाधान संस्कार से लेकर अन्त्येष्टि क्रिया तक किए जाते हैं। इनमें से जैसे विवाह, यज्ञोपवीत आदि संस्कार बड़े धूमधाम से मनाये जाते हैं।
महंत श्री पारस भाई जी ने कहा कि आधुनिक सभ्यता के प्रभाव में इन संस्कारों का स्वरूप बेशक ही बदला हो लेकिन ये आज भी अपने आदर्शो और श्रेष्ठ मानवीय महत्व एवं विश्वास के कारण उतने ही प्रासंगिक हैं जितने कि प्राचीन भारतीय संस्कृति में थे। ऐसा माना गया है कि यदि कोई भी व्यक्ति इन संस्कारों के अनुसार जीवन-यापन करता है तो वह व्यक्ति जीवन के लक्ष्यों को प्राप्त कर सकता है। वैसे तो वेद, स्मृति और पुराणों में अनेकों संस्कार बताए गए है लेकिन उनमें से मुख्य सोलह संस्कार हैं, इन संस्कारों के नाम हैं-
(1)गर्भाधान संस्कार (2)पुंसवन संस्कार (3)सीमन्तोन्नयन संस्कार (4)जातकर्म संस्कार (5)नामकरण संस्कार (6)निष्क्रमण संस्कार (7)अन्नप्राशन संस्कार (8)मुंडन संस्कार चूड़ाकर्म (9)कर्णवेध संस्कार (10)विद्यारंभ संस्कार (11)उपनयन संस्कार या यज्ञोपवीत (12)वेदारंभ संस्कार (13)केशांत संस्कार (14)समावर्तन संस्कार (15)विवाह संस्कार (16) अन्त्येष्टि संस्कार।
महंत श्री पारस भाई जी कहते हैं कि संस्कार चरित्र निर्माण के प्रमुख आधार हैं।
हिंदू धर्म में सोलह संस्कारों में गर्भाधान पहला संस्कार है। उत्तम संतान की प्राप्ति के लिए सबसे पहले यह संस्कार गर्भाधान संस्कार करना होता है। गृहस्थ जीवन का प्रमुख उद्देश्य श्रेष्ठ सन्तानोत्पत्ति है। इस संस्कार में विवाहित स्त्री मन एवं विचारों को पवित्र कर स्वस्थ रूप से गर्भधारण करती है, तब उसे स्वस्थ एवं बुद्धिमान संतान की प्राप्ति होती है।
अच्छी संतान की इच्छा रखने वाले माता-पिता को गर्भाधान से पूर्व अपने तन और मन की पवित्रता के लिये यह संस्कार करना चाहिए। महंत श्री पारस भाई जी ने बताया कि गर्भस्थापन के बाद कई तरह के प्राकृतिक दोषों से बचने के लिए यह संस्कार किया जाता है, इससे गर्भ सुरक्षित रहता है। यह सभी संस्कारों में एक शिशु के लिए पहला संस्कार है।
पुंसवन संस्कार द्वारा गर्भ में पल रहे शिशु के संस्कारों की नींव रखी जाती है। ऐसा माना जाता है कि शिशु गर्भ में ही सीखना शुरू कर देता है। गर्भाधान के दूसरे या तीसरे महीने में इस संस्कार को करने का विधान है। क्योंकि गर्भ में तीन महीने के बाद गर्भस्थ शिशु का मस्तिष्क विकसित होने लगता है। गर्भस्थ शिशु के मानसिक विकास की दृष्टि से यह संस्कार महत्वपूर्ण समझा जाता है।
इस संस्कार में जब महिला स्वस्थ रूप से गर्भवती हो जाती है तो तब पति और पत्नी मिलकर यह प्रतिज्ञा लेते हैं कि वे दोनों मिलकर गर्भ की रक्षा करेंगे और गर्भ में पल रहे शिशु को नुकसान नहीं होने देंगे। हमारे धर्म में सन्तानोत्कर्ष के उद्देश्य से किये जाने वाले इस संस्कार को अनिवार्य माना है। पुंसवन संस्कार का उद्देश्य स्वस्थ एवं उत्तम संतति को जन्म देना है।
यह तीसरा संस्कार है, जो कि गर्भधारण के छठे अथवा आठवें महीने में किया जाता है। सीमन्तोन्नयन को सीमन्तकरण अथवा सीमन्त संस्कार भी कहते हैं। इस संस्कार का मुख्य उद्देश्य गर्भ को पवित्र करना है यानि गर्भपात रोकने के साथ-साथ गर्भस्थ शिशु एवं उसकी माता की रक्षा करना भी इस संस्कार का मुख्य उद्देश्य है। ऐसी मान्यता है कि इस दौरान गर्भवती महिला जैसा व्यवहार करती है या फिर जो भी सोचती है उसका असर गर्भ में पल रहे बच्चे पर पड़ता है। इस संस्कार के माध्यम से गर्भवती स्त्री को खुश रखने के लिये सौभाग्यवती स्त्रियां गर्भवती की मांग भरती हैं।
यह संस्कार शिशु के जन्म के बाद होता है। जातकर्म संस्कार को करने से शिशु के कई प्रकार के दोष दूर होते हैं। इसमें शिशु को सोने के चम्मच या अनामिका उंगली से शहद और घी चटाया जाता है। साथ ही वैदिक मंत्रों का उच्चारण किया जाता है। महंत श्री पारस भाई जी ने कहा कि घी चटाने से शिशु की आयु बढ़ती है। इसके अलावा शहद चटाने से कफ का भी नाश होता है। इस संस्कार के द्वारा शिशु के बुद्धिमान, बलवान, स्वस्थ एवं दीर्घायु होने की प्रार्थना की जाती है। इसके बाद माता बालक को स्तनपान कराती है।
नामकरण संस्कार का हिंदू धर्म में अधिक महत्व है। यह शिशु के जन्म के बाद उसके नाम रखने का एक नियम है। शिशु के जन्म के बाद 11 वें दिन नामकरण संस्कार किया जाता है। जन्म लग्न के अनुसार किसी पंडित के द्वारा शिशु का नाम रखा जाता है। महंत श्री पारस भाई जी ने कहा कि नाम के प्रभाव का महत्व इसलिए अधिक है क्योंकि यह व्यक्तित्व के विकास में सहायक होता है।
यहाँ तक कि ज्योतिष विज्ञान तो नाम के आधार पर ही भविष्य की रूपरेखा तैयार करता है। इस संस्कार में पंडित जी नाम के अक्षर का सुझाव देते हैं। जिससे माता पिता या परिवार वाले अपनी पसंद से बच्चे का नाम रखते हैं। इस दिन बच्चे के अच्छे भविष्य के लिए कामना की जाती है।
इस संस्कार में शिशु के आयु वृद्धि की कामना की जाती है एवं बच्चे के उज्जवल भविष्य के लिए प्रार्थना की जाती है। निष्क्रमण का अभिप्राय है बाहर निकलना। इस संस्कार का अर्थ यह है कि शिशु समाज के सम्पर्क में आकर सामाजिक परिस्थितियों से रूबरू हो। यह संस्कार शिशु के 4 या 6 महीने पूरे होने के बाद किया जाता है। इस संस्कार में शिशु को सूर्य तथा चन्द्रमा की ज्योति दिखाने का विधान है।
महंत श्री पारस भाई जी ने बताया कि भगवान सूर्य देव के तेज तथा चन्द्रमा की शीतलता से शिशु को अवगत कराना ही इसका मुख्य उद्देश्य है। इस दिन देवी-देवताओं के दर्शन करके उनसे शिशु के दीर्घ एवं यशस्वी जीवन के लिये प्रार्थना की जाती है।
इस संस्कार का हमारे जीवन में विशेष महत्व है। इस संस्कार में शिशु के आयु वृद्धि की कामना की जाती है। यह संस्कार 5 से 6 महीने के बीच में किया जाता है। महंत श्री पारस भाई जी ने बताया कि इस संस्कार का मुख्य उद्देश्य शिशु के शारीरिक व मानसिक विकास पर ध्यान केन्द्रित करना है। इस संस्कार में बच्चे के उज्जवल भविष्य के लिए प्रार्थना की जाती है।
अन्नप्राशन अर्थ है कि जो शिशु अभी तक सिर्फ पेय पदार्थो जैसे माँ के दूध पर निर्भर आधारित था अब वह अन्न को ग्रहण कर शारीरिक व मानसिक रूप से बलवान बन सकता है। अन्न को शास्त्रों में प्राण कहा गया है। क्योंकि पौष्टिक आहार से ही तन और मन स्वस्थ रहता है। खीर और मिठाई से शिशु के अन्नग्रहण को शुभ माना जाता है।
मुंडन संस्कार में बच्चे के 1, 3 या 5 साल पूरा होने के बाद पर बालों को किसी धार्मिक स्थल या नदी किनारे उतारा जाता है। चूड़ाकर्म को ही मुंडन संस्कार भी कहा जाता है। महंत श्री पारस भाई जी ने कहा कि इस संस्कार से शिशु को बुद्धि, बल और आयु की प्राप्ति होती है। इस संस्कार के पीछे शुचिता और बौद्धिक विकास की परिकल्पना छिपी है। वैदिक मंत्रोच्चारण के साथ यह संस्कार पूरा होता है। इस संस्कार से बच्चे का सिर मजबूत और बुद्धि तेज होती है।
यह संस्कार भी बहुत महत्व रखता है। इस संस्कार में बच्चे का कान छेदने की रस्म पूरी की जाती है। इस संस्कार को शिशु के जन्म के बाद 6 माह से लेकर 5 वर्ष तक कभी भी किया जा सकता है। कर्णवेध संस्कार का आधार पूरी तरह वैज्ञानिक है। इस शरीर के सारे अंग महत्वपूर्ण हैं। कान हमारे श्रवण द्वार हैं। कर्ण वेधन से व्याधियां दूर होती हैं और बच्चे की श्रवण शक्ति भी बढ़ती है। साथ ही कानों में आभूषण हमारे सौन्दर्य को भी बढ़ाता है।
दरअसल प्राचीन काल में इस संस्कार से बच्चों की शिक्षा प्रारंभ होती थी। विद्वानों द्वारा शुभ मुहूर्त निकाल कर इस संस्कार को किया जाता था। महंत श्री पारस भाई जी ने विद्यारंभ संस्कार के बारे में बताया कि विद्यारम्भ का अभिप्राय बालक को शिक्षा के प्रारम्भिक स्तर से परिचित कराना है। क्योंकि विद्या व्यक्ति के जीवन में सबसे श्रेष्ठ मानी जाती है।
यज्ञोपवीत अथवा उपनयन संस्कार बौद्धिक विकास के लिये बहुत ही महत्वपूर्ण संस्कार है। महंत श्री पारस भाई जी ने बताया कि यज्ञोपवीत जिसे जनेऊ संस्कार भी कहा जाता है, अत्यन्त पवित्र है। इस संस्कार में बालक को पूरे विधि विधान के साथ जनेऊ धारण करवाया जाता है। प्राचीन धर्म ग्रंथों में यह कहा गया है कि इस संस्कार के बाद बालक को वेदों के अध्ययन करने का अधिकार प्राप्त हो जाता है। यह आयु को बढ़ानेवाला, बल, बुद्धि और तेज प्रदान करनेवाला है। महंत श्री पारस भाई जी ने बताया कि प्राचीन काल में जब गुरुकुल की परम्परा थी उस समय आठ वर्ष की उम्र में यज्ञोपवीत संस्कार पूरा हो जाता था। इसके बाद बालक विशेष अध्ययन के लिये गुरुकुल जाता था।
इसके अंतर्गत वेदों का ज्ञान दिया जाता है। वेद का अर्थ है ज्ञान और वेदारंभ के माध्यम से बालक ज्ञान को अपने अन्दर समाविष्ट करना शुरू करे, यही इस संस्कार का अर्थ है। क्योंकि ज्ञान से बढ़कर दुनिया में कुछ भी नहीं है। प्राचीन काल में वेदारम्भ से पहले आचार्य अपने शिष्यों को ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करने एवं संयमित जीवन जीने की प्रतिज्ञा कराते थे। फिर वेदाध्ययन कराते थे। इस संस्कार को जन्म से लगभग 7 वें वर्ष में किया जाता है।
केशान्त का अर्थ है बालों का अंत करना। गुरुकुल में वेदाध्ययन पूर्ण कर लेने पर आचार्य के समक्ष यह संस्कार सम्पन्न किया जाता था। वस्तुत: यह संस्कार गुरुकुल से विदाई लेने तथा गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने का उपक्रम है, बताया महंत श्री पारस भाई जी ने। वेद-पुराणों एवं विभिन्न विषयों में पारंगत होने के बाद ब्रह्मचारी के समावर्तन संस्कार के पूर्व बालों की सफाई की जाती थी तथा उसे स्नान कराकर स्नातक की उपाधि दी जाती थी। केशान्त संस्कार शुभ मुहूर्त में किया जाता था।
महंत श्री पारस भाई जी ने समावर्तन संस्कार के बारे में बताया कि इस संस्कार में शिक्षा पूरी होने के बाद जब बच्चे शिक्षा समाप्त कर अपने गुरु की इच्छा से घर लौटते थे, तब उनके लौटने की प्रक्रिया को ही समावर्तन संस्कार कहा जाता है। यानि गुरुकुल से विदाई लेने से पूर्व शिष्य का समावर्तन संस्कार होता था। इस संस्कार के समय उनकी उम्र 23 या 24 वर्ष के लगभग मानी गई है।
इस संस्कार में सुगन्धित पदार्थो एवं औषधि के साथ जल से भरे हुए वेदी के उत्तर भाग में आठ घड़ों के जल से स्नान करने का विधान है। यह स्नान विशेष मन्त्रोच्चारण के साथ होता था। इस संस्कार के बाद उसे विद्या स्नातक की उपाधि आचार्य देते थे। इस संस्कार के बाद एक ब्रह्मचारी बालक गृहस्थ जीवन में प्रवेश लेने का अधिकार प्राप्त करता है।
विवाह संस्कार जीवन का सबसे महत्वपूर्ण संस्कार है। जिसमें पुरुष और स्त्री, अपने माता-पिता की आज्ञा से देवी-देवताओं की पूजा आराधना और विवाह संबंधी सभी नियमों के साथ विवाह कर गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करते हैं। विवाह के द्वारा न सिर्फ सृष्टि के विकास में योगदान दिया जाता है बल्कि व्यक्ति के आध्यात्मिक और मानसिक विकास के लिए भी जरुरी है।
यह संस्कार व्यक्ति के जीवन का आखिरी संस्कार है जिसे मृत्यु के बाद किया जाता है। अन्त्येष्टि को अंतिम अथवा अग्नि परिग्रह संस्कार भी कहा जाता है। महंत श्री पारस भाई जी का मानना है कि मृत शरीर की विधिवत् क्रिया करने से जीव की अतृप्त वासनायें शान्त हो जाती हैं। मनुष्य के प्राण छूटने के बाद वह इस लोक को छोड़ देता है। उसके बाद विभिन्न लोकों के अलावा मोक्ष को प्राप्त होता है। मनुष्य अपने कर्मो के अनुसार फल भोगता है।
"Mata Rani's grace is like a gentle breeze, touching every heart that seeks refuge in her love."