“-वट-सावित्री व्रत-”

“वट-सावित्री” व्रत।
सौभाग्य के लिए अजर व अमरता का दान और संतान की प्राप्ति में सहायता देनेवाला व्रत - “वट-सावित्री व्रत”।
वट सावित्री व्रत को भारतीय संस्कृति में आदर्श नारीत्व की मान्यता है। भारतीय विवाहित महिलाएँ इस व्रत के माध्यम से अपने सुहाग के लिए लम्बी उम्र की कामना एवं संतान प्राप्ति की इच्छापूर्ति के वरदान की प्राप्ति कर सकती है। स्कन्दपुराण तथा भविष्यपुराण के अनुसार यह व्रत ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा को मनाया जाता है। इस वर्ष यह पर्व 14 जून को मनाया जाएगा।
क्यों मनाते हैं “वट-सावित्री” व्रत ?
भले ही तिथियों में भिन्नता हो लेकिन वट सावित्री व्रत का लक्ष्य एक ही है। भारतीय संस्कृति में परुषप्रधान परंपरा के चलते हमारे देश में पतिव्रता सौभाग्यवती का एक बहोत महत्वपूर्ण संस्कार रहा है जिसका निर्वाह हर पतिव्रता नारी इस दिन करती है। इस व्रत में "वट और सावित्री" दोनों का अनन्य महत्व माना गया है। पीपल की तरह वट या बरगद के पेड़ का वैज्ञानिक दृष्टिकोण से तो महत्व है ही अपितु भगवान गौतम बुद्ध को इसी पेड़ के निचे बैठकर "बोधिसत्व" की प्राप्ति होने से इस पेड़ को आध्यात्मिक दृष्टिकोण से भी महत्वपूर्ण माना जाता है। और कथानुसार सावित्री ने अपने पतिपरमेश्वर के मृत्यु के पश्चात उनके प्राणों को यमराज से वापिस मांगकर उन्हें जीवनदान दिया। साथ ही साथ एक पतिव्रता आदर्श को स्थापित कर सावित्री ने इतिहास रच डाला और वर्तमान समय के पीढ़ी के लिए एक महान सिख दी है जिस पर चलके आज की महिलाएं सावित्री की तरह महान पतीव्रता स्त्री बन सकें।
आइये समझते हैं की कथा क्या कहती है -
इतिहास में लिखित कथा के अनुसार राजा अश्वपति की कोई संतान नही थी। उन्होंने संतान प्राप्ति के लिए बड़े ही तप-व्रत-जतन किये और इससे प्रसन्न होकर "सावित्रीदेवी" ने राजा को वरदान देते हुए कहा की, ‘‘हे राजन तेरे यहाँ एक तेजस्वी पुत्री का जन्म होगा‘‘। कुछ दिनों बाद राजा को संतानप्राप्ति हुई और चूँकि ‘‘सावित्रीदेवी‘‘ के वरदान से उन्हें यह कन्या की प्राप्ति हुई इसीलिए उसका नाम भी सावित्री ही रखा गया। तत्पश्चात सावित्री के बड़े होते ही विवाह के लिए योग्य वर न मिलने के कारण राजा ने सावित्री को ही अपने लिए वर को ढूंढ़ने के लिए कहा। तलाश के दौरान सावित्री की मुलाकात साल्व देश के राजा द्युमत्सेन के पुत्र सत्यवान से हुई जिनके व्यक्तित्व से प्रभावित होकर सावित्री ने पतिरूप में उनका चयन किया।
शाश्त्रोक्त पद्धति से पूजा कैसे की जाए ?
1) प्रथम पूजा स्थली पर रंगोली बनाए एवं पूजा सामग्री प्रस्थापित करें।
2) चैकी डालकर उसे लाल कपडे से सुशोभित करें एवं लक्ष्मी-नारायण और शिव-पार्वती की प्रतिमा स्थापित करें।
3) तुलसी का पौधा रखना न भूलें।
4) सर्वप्रथम गणपति जी और माँ गौरी की पूजा कर तत्पश्चात बरगद के वृक्ष की पूजा करें।
5)किसी निर्धन स्त्री को सुहाग की सामग्री का दान अवश्य दें ।
6) सभी के साथ मिलकर सावित्री-सत्यवान की कथा का पाठ करें।
पारस परिवार का आवाहन-
जय माता दी आपको-
श्री श्री पारस भाई गुरु जी ,पारस परिवार हमेशा से वैदिक सनातन संस्कृति की परंपरा को निभाते आये है और संपूर्ण मानव जाती अपने वैदिक सभ्यता की ओर वापस लौटे इसी के लिए पारस परिवार सतत कार्यरत है।
इस प्रकार पूरी श्रद्धा और भावना से इस पर्व को मनाए और अपने वैदिक संस्कृति का जतन करते हुए इस परंपरा को आगे बढ़ाए।
-गुरु पूर्णिमा पर्व-
गुरु पूर्णिमा एक ऐसा पर्व है जिस दिन एक साधक अपने भौतिक एवं आध्यात्मिक गुरु का वंदन कर आजीवन उनके दिखाए गए मार्ग पर संकल्पबद्ध होकर चलने का संकल्प लेता है।
गुरु पूर्णिमा को ही ”व्यास पूर्णिमा“ के नाम से जाना जाता है। यह पूर्णिमा आषाढ़ मास में आती है जिसका आरम्भ वर्षा ऋतू में होता है। इस दिन महाभारत के रचयिता ”कृष्ण द्वैपायन व्यास“ जी का जन्मदिन भी है। उनका एक नाम वेदव्यास है। उन्हें आदिगुरु भी कहा जाता।
-गुरु की व्याख्या-
गु-अँधेरा जानिए,रु-कहिये प्रकाश,
मिटै अज्ञानतम ज्ञान से गुरु नाम है तास।
अर्थात गुरु वही है जो हमारे जीवन से अज्ञानता को मिटाकर हमें प्रकाश की ओर ले जाए। इस वर्ष यह पर्व 13 जुलाई को मनाया जाएगा।
-भारतीय संस्कृति में गुरु का महत्व-
सात समिंद की मसि करौं, लेखनी सब वनराई।
धरती सब कागद करौं, तउ हरी गुण लिखा न जाइ।।
गुरु की अनंत महिमा का बखान करते हुए भक्त अनुरागी अपने वचनों के माध्यम से यही समझाने का प्रयास करते है की, हम सातो समंदर की स्याही क्यों न बना लें, समस्त जंगलों के लकड़ियों की लेखनी क्यों न बना लें इतना ही नहीं बल्कि समस्त धरती को कागज ही क्यों न बना लें तब भी हम गुरु की महिमा का गुणगान करने मे असमर्थ है।
फिर भी जब एक भक्त भक्ति के रंग में रंग जाता है तो अपने मुरीद को याद कर भावों की नदियां बहने लगती है और वह लिखता है,
ध्यान मूलं गुरुर्मूर्ति, पूजा मूलं गुरुर्पदं,
मंत्र मूलं गुरोर्वाक्यं, मोक्ष मूलं गुरुर्कृपा।
अर्थात सही ध्यान वही होता है जिस ध्यान में गुरु की मूर्ति हो। सही पूजा वही है जिसमे गुरु चरणों की पूजा हो।
मंत्र का मतलब ही होता है की, जिससे हमारा मन केंद्रित हो। अर्थात गुरु के वचनों को ही मंत्र कहा गया है और जब एक भक्त गुरु आज्ञा में अपने आप को समर्पित कर देता है तब अपने गुरु की कृपा को प्राप्त करता है और यही ''गुरुकृपा" साधक के मोक्ष का कारण बनती है।
गुरु पूर्णिमा के उपलक्ष्य में आप के समक्ष इन्ही कुछ विचारों को रखने का प्रयास था।
आशा है आपको इन विचारों का लाभ हो। और अंत में पारस परिवार की ओर से आप सभी को "गुरु पूर्णिमा" महोत्सव की ढ़ेर सारी शुभकामनाए।
-"देवशयनी एकादशी"-
-एकादशी का वास्तविक अर्थ-
शास्त्रों में वर्णन आता है की, एकादश मतलब ग्यारा । ग्यारा को ही संस्कृत में एकादश कहतें है। जिसमे पांच ज्ञानेन्द्रियाँ, पांच कर्मेन्द्रियाँ और एक मन जब मिलकर अपना ध्यान गुरु चरणोंमे लगातें हैं तभी सही मायने में एकादशी होती है। जहांतक बात एकादशी के व्रत या उपवास की है, उपवास का संधि विग्रह करें तो बनता है उप जमा वास। "उप" माने नजदीक और "वास" माने रहना। उस ईश्वर के नजदीक रहना ही सच्चा "उपवास" कहलाता है।
सही मायने में देखा जाए तो हमारे वेदों और पुराणों के रचयिता, एक सच्चे "ब्रह्मज्ञानी" साधक हुआ करते थे। ब्रह्मज्ञान की साधना करते हुए उन्होंने जिस अवस्था को प्राप्त कर वेद और पुराणों की रचना की उसे सही मायने में समझने के लिए कहीं न कहीं हमें भी ब्रह्मनिष्ठ सतगुरु से उस ब्रह्ज्ञान की प्राप्ति कर विवेक के आधारपर अपने धर्मग्रंथों के सही मायने को समझना होगा तभी हम समाज को "अंधकार से उजाले" की ओर ले जा सकते है।
-देवशयनी एकादशी-
भारतीय सनातन संस्कृति में एकादशी व्रत का विशेष स्थान माना जाता है। आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी को ही
"देवशयनी एकादशी" कहा जाता है। इस एकादशी को "पद्मनाभा" के नाम से भी कई क्षेत्रों में लोग मनाते है। इसी दिन से चातुर्मास का आरंभ माना जाता है। इस दिन से भगवान श्री हरि विष्णु क्षीरसागर में शयन करते हैं और फिर लगभग चार माह बाद तुला राशि में सूर्य के जाने पर उन्हें उठाया जाता है। उस दिन को देवोत्थानी एकादशी कहा जाता है। इस बीच के अंतराल को ही चातुर्मास कहा गया है। इस वर्ष देवशयनी आषाढ़ी एकादशी आनेवाली 10 जुलाई 2022 को मनाई जाएगी।
-पौराणिक सन्दर्भ-
पुराणों में वर्णन आता है कि भगवान विष्णु इस दिन से चार मासपर्यन्त (चातुर्मास) पाताल में राजा बलि के द्वार पर निवास करके कार्तिक शुक्ल एकादशी को लौटते हैं। इसी प्रयोजन से इस दिन को 'देवशयनी' तथा कार्तिकशुक्ल एकादशी को प्रबोधिनी एकादशी कहते हैं। इस काल में यज्ञोपवीत संस्कार, विवाह, दीक्षाग्रहण, यज्ञ, गृहप्रवेश, गोदान, प्रतिष्ठा एवं जितने भी शुभ कर्म है, वे सभी त्याज्य होते हैं। भविष्य पुराण, पद्म पुराण तथा श्रीमद्भागवत पुराण के अनुसार हरिशयन को योगनिद्रा कहा गया है। संस्कृत में धार्मिक साहित्यानुसार हरि शब्द सूर्य, चन्द्रमा, वायु, विष्णु आदि अनेक अर्थो में प्रयुक्त है। हरिशयन का तात्पर्य इन चार माह में बादल और वर्षा के कारण सूर्य-चन्द्रमा का तेज क्षीण हो जाना उनके शयन का ही द्योतक होता है। इस समय में पित्त स्वरूप अग्नि की गति शांत हो जाने के कारण शरीरगत शक्ति क्षीण या सो जाती है। आधुनिक युग में वैज्ञानिकों ने भी खोजा है कि कि चातुर्मास्य में (मुख्यतः वर्षा ऋतु में) विविध प्रकार के कीटाणु अर्थात सूक्ष्म रोग जंतु उत्पन्न हो जाते हैं, जल की बहुलता और सूर्य-तेज का भूमि पर अति अल्प प्राप्त होना ही इनका कारण है।
धार्मिक शास्त्रों के अनुसार आषाढ़ शुक्ल पक्ष में एकादशी तिथि को शंखासुर दैत्य मारा गया। अत: उसी दिन से आरम्भ करके भगवान चार मास तक क्षीर समुद्र में शयन करते हैं और कार्तिक शुक्ल एकादशी को जागते हैं। पुराण के अनुसार यह भी कहा गया है कि भगवान हरि ने वामन रूप में दैत्य बलि के यज्ञ में तीन पग दान के रूप में मांगे। भगवान ने पहले पग में संपूर्ण पृथ्वी, आकाश और सभी दिशाओं को ढक लिया। अगले पग में सम्पूर्ण स्वर्ग लोक ले लिया। तीसरे पग में बलि ने अपने आप को समर्पित करते हुए सिर पर पग रखने को कहा। इस प्रकार के दान से भगवान ने प्रसन्न होकर पाताल लोक का अधिपति बना दिया और कहा वर मांगो। बलि ने वर मांगते हुए कहा कि भगवान आप मेरे महल में नित्य रहें। बलि के बंधन में बंधा देख उनकी भार्या लक्ष्मी ने बलि को भाई बना लिया और भगवान से बलि को वचन से मुक्त करने का अनुरोध किया। तब इसी दिन से भगवान विष्णु जी द्वारा वर का पालन करते हुए तीनों देवता ४-४ माह सुतल में निवास करते हैं। विष्णु देवशयनी एकादशी से देवउठानी एकादशी तक, शिवजी महाशिवरात्रि तक और ब्रह्मा जी शिवरात्रि से देवशयनी एकादशी तक निवास करते हैं।
-अतिविशेष देवशयनी एकादशी -
-विशेषताएं-
१)इस एकादशी को सौभाग्य की एकादशी के नाम से भी जाना जाता है। पद्म पुराण का दावा है कि इस दिन उपवास या उपवास करने से जानबूझकर या अनजाने में किए गए पापों से मुक्ति मिलती है।
२)इस दिन पूरे मन और नियम से पूजा करने से महिलाओं की मोक्ष की प्राप्ति होती है। ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार देवशयनी एकादशी का व्रत करने से सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं।
३)शास्त्रों के अनुसार चातुर्मास में 16 संस्कारों का आदेश नहीं है। इस अवधि में पूजा, अनुष्ठान, घर या कार्यालय की मरम्मत, गृह प्रवेश, ऑटोमोबाइल खरीद और आभूषण की खरीद की जा सकती है।
-देवशयनी एकादशी को मनाने की विधि -
देवशयनी एकादशी व्रतविधि एकादशी को प्रातःकाल उठें। इसके बाद घर की साफ-सफाई तथा नित्य कर्म से निवृत्त हो जाएँ। स्नान कर पवित्र जल का घर में छिड़काव करें। घर के पूजन स्थल अथवा किसी भी पवित्र स्थल पर प्रभु श्री हरि विष्णु की सोने, चाँदी, तांबे अथवा पीतल की मूर्ति की स्थापना करें। तत्पश्चात उसका षोड्शोपचार (सोलह उपचार) सहित पूजन करें। इसके बाद भगवान विष्णु को पीतांबर आदि से विभूषित करें। तत्पश्चात व्रत कथा सुननी चाहिए। इसके बाद आरती कर प्रसाद वितरण करें। अंत में सफेद चादर से ढँके गद्दे-तकिए वाले पलंग पर श्री विष्णु को शयन कराना चाहिए। व्यक्ति को इन चार महीनों के लिए अपनी रुचि अथवा अभीष्ट के अनुसार नित्य व्यवहार के पदार्थों का त्याग और ग्रहण करें।
-पौराणिक कथा-
एक बार देवऋषि नारदजी ने ब्रह्माजी से इस एकादशी के विषय में जानने की उत्सुकता प्रकट की, तब ब्रह्माजी ने उन्हें बताया- सतयुग में मांधाता नामक एक चक्रवर्ती सम्राट राज्य करते थे। उनके राज्य में प्रजा बहुत सुखी थी। किंतु भविष्य में क्या हो जाए, यह कोई नहीं जानता। अतः वे भी इस बात से अनभिज्ञ थे कि उनके राज्य में शीघ्र ही भयंकर अकाल पड़ने वाला है। उनके राज्य में पूरे तीन वर्ष तक वर्षा न होने के कारण भयंकर अकाल पड़ा। इस दुर्भिक्ष (अकाल) से चारों ओर त्राहि-त्राहि मच गई। धर्म पक्ष के यज्ञ, हवन, पिंडदान, कथा-व्रत आदि में कमी हो गई। जब मुसीबत पड़ी हो तो धार्मिक कार्यों में प्राणी की रुचि कहाँ रह जाती है। प्रजा ने राजा के पास जाकर अपनी वेदना की दुहाई दी।राजा तो इस स्थिति को लेकर पहले से ही दुःखी थे। वे सोचने लगे कि आखिर मैंने ऐसा कौन-सा पाप-कर्म किया है, जिसका दंड मुझे इस रूप में मिल रहा है? फिर इस कष्ट से मुक्ति पाने का कोई साधन करने के उद्देश्य से राजा सेना को लेकर जंगल की ओर चल दिए। वहाँ विचरण करते-करते एक दिन वे ब्रह्माजी के पुत्र अंगिरा ऋषि के आश्रम में पहुँचे और उन्हें साष्टांग प्रणाम किया। ऋषिवर ने आशीर्वचनोपरांत कुशल क्षेम पूछा। फिर जंगल में विचरने व अपने आश्रम में आने का प्रयोजन जानना चाहा। तब राजा ने हाथ जोड़कर कहा- 'महात्मन्! सभी प्रकार से धर्म का पालन करता हुआ भी मैं अपने राज्य में दुर्भिक्ष का दृश्य देख रहा हूँ। आखिर किस कारण से ऐसा हो रहा है, कृपया इसका समाधान करें।' यह सुनकर महर्षि अंगिरा ने कहा- 'हे राजन! सब युगों से उत्तम यह सतयुग है। इसमें छोटे से पाप का भी बड़ा भयंकर दंड मिलता है।
महर्षि अंगिरा ने बताया- 'आषाढ़ माह के शुक्लपक्ष की एकादशी का व्रत करें। इस व्रत के प्रभाव से अवश्य ही वर्षा होगी।' राजा अपने राज्य की राजधानी लौट आए और चारों वर्णों सहित पद्मा एकादशी का विधिपूर्वक व्रत किया। व्रत के प्रभाव से उनके राज्य में मूसलधार वर्षा हुई और पूरा राज्य धन-धान्य से परिपूर्ण हो गया।